डॉ भगवानदास ‘निर्मोही’ की प्रथम रचना है जो मई 1961 में प्रकाशित हुई। कथा का एक अत्यन्त क्षीण सूत्र लेकर कवि ने पीड़ामय विरहानुभूतियों को और अपने अभावमय जीवन की व्यथा को विवृति दी है। काव्य की ‘आसक्ति’ नामक भूमिका में कवि इस कथासूत्र की ओर संकेत करता है -‘—- मैं अभिनव सपन संसार में खो किसी अनजाने तट की ओर बह चला, जहाँ कोई मधुर मुस्कानें लिए मुझे बुला रहा था पर जब किनारे पर पहुंचा तो सहसा प्रतीक्षक मुस्कानें कहीं खो गई। मैंने बहुत पुकारा,पर मन का मीत न मिला। ………पर ओ कल्पने ……. ! मेरे गीतों में, मेरे स्वर-स्वर में आज भी तुम्हीं हो—-।’
रोती मुस्कानें एक लंबे स्मृति गीत की तरह लिखा गया है जिसमें कवि उस पुरानी मिलन और विरह की कहानी को याद करते हुए अपने पीड़ा मय चीत्कार को शब्दाकार देता है। कवि स्मरण करता है कि वह जब अपने एकाकी पर उन्मुक्त जीवन में मस्त था। तभी कोई स्वयं को समर्पित कर कवि के जीवन में आया -भोला कवि उस की बातों में आ गया। जीवन मधुमास बन गया ,पर शीघ्र ही वह सुन्दरी कवि के अभावमय जीवन से ऊब गई और वैभव की दुनिया में लौट गयी। कवि का सपनों का महल ढह गया, विरह की पीड़ा प्रचण्ड वेग से बह निकली। कभी वह दुःख में बिलखता है-कभी वही दुःख उसे प्रिय लगने लगता है -कभी उस के लौटने का सपना देखता है – पर शीघ्र ही कवि को अपने दुर्भाग्य पर विश्वास होने लगा -फिर भी स्मृतियां पीछा नहीं छोड़ती -कवि की व्यथा कथा तो अनन्त है। पर उसे संसार को सुनाते रहना उसे अभिप्रेत नहीं है अतः अपनी पीड़ा समेटते हुए वह अन्त में कहता है –
‘‘रहने दो ऊब रहा जग,
लम्बी उर – कथा बहुत है
कह लेंगे मिल पाए जो,
कहने को व्यथा बहुत है।।’’
‘रोती मुस्कानें पढ़ें तो जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ की याद बरबस आ जाती है और तब ‘आँसू’ हिन्दी का एकमात्र पुरुष विरह काव्य प्रतीत नहीं होता, ‘रोती मुस्कानें’ स्पष्ट रूप से उसी शृंखला की दूसरी कड़ी लगती है। इस का विरोधाभासपूर्ण शीर्षक ही रचना की विलक्षणता को सामने ले आता है ।
‘भगवानदास ‘निर्मोही’
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‘निर्मोही’ कवि भगवानदास ‘निर्मोही’ की काव्ययात्रा का तीसरा सोपान है। अपने उपनाम को शीर्षक बना कर लिखी गई इस रचना के नाम से ही स्पष्ट है कि इस में विरक्ति और निर्मोह का स्वर प्रधान है। वैसे देखने में यह एक लम्बी कविता दिखाई देती है, जिसके हर छंद का अन्त निर्मोही शब्द से होता है, परन्तु एक सूक्ष्म कथासूत्र भी इस में विद्यमान है अतः इसे खण्डकाव्य कहा जा सकता है। इसे कवि ने अपने गुरु स्वामी हीरानन्द पुरी जी को समर्पित किया है। यद्यपि इस का प्रकाशन वर्ष 1966 है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह रचना कवि ने उन दिनों लिखी थी जब वे संन्यासी बन कर गुरु के आश्रम भ्याला नंगल में रहे थेऔर पहली बार अपना उपनाम घोषित किया था।
रचना का परिचय देते हुए कवि ‘निर्मोही’ की भूमिका – ‘विरक्ति’ में लिखते हैं- ‘‘……आसक्ति का प्रसाद मिला आहें, आँसू ले सिसकना, बिलखना……. मैं खोजने लगा दिलजोई का साधन प्रकृति प्रेयसी में………… पर उस रूप में परिवर्तन होता देख हृदय हाहाकार कर उठा ………. मन ढूंढने लगा एक शाश्वत सहारा……… फलतः उसने पहचान लिया एक ऐसी शक्ति को, जो चिरकाल से उस रूप की प्रेरणा थी। उसे जानकर वह विस्मित हो उठा और लगा अधीर हो ‘उसे’ ढूंढने। खोज लेने पर मन ने महा मिलन चाहा……… अन्त में वह विरक्त निर्मोही बन उस दिव्य लोक को लख उसी में समा गया।’’ उस परम आनन्द का अनुभव कर कवि संसार के सब लोगों को उस अनुभव के लिए आमन्त्रित करता है:-
आओ, मस्त बनें और झूमें,
हो कर हम सब निर्मोही।
मुस्काते ही रहें चिता तक
मोह छोड़ बन निर्मोही।।
इस प्रकार ‘निर्मोही’ ‘स्थूल’ से ‘सूक्ष्म’ तक मानव मन की अन्तर्यात्रा है जो भारतीय दर्शन, अध्यात्म और स्वर्ग नरक के मिथकों से प्रभावित है। इस की सरल, स्पष्ट, चित्रात्मक, मधुर भाषा में अभिव्यक्ति इसे सर्वग्राह्य तथा अति सम्प्रेषणीय बना देती है। दर्शन और अध्यात्म का विषय होने पर भी कहीं कलिष्टताऔर दुरूहता नहीं है। इसकी संगीतमयी लय बच्चन जी की मधुशाला की याद दिलाती है
कवि भगवान दास ‘निर्मोही’ की रचना ‘सपने और धड़कन’ एक गीत संग्रह है जिसमें 51 हृदयस्पर्शी गीत संकलित हैं। कवि संग्रह की भूमिका ‘मानसी’ में लिखता है-
‘‘……… सपने कल्पनाकाश हैं तो धड़कन ठोस धरातल। समय और परिस्थिति के अनुसार सपने भी बदलते रहते हैं, धड़कनें भी परिवर्तित होती रहती हैं। मानव कभी आशा के विमलाकाश में उड़ता है, तो कभी विरक्ति के विजय-वन में विहरता दीख पड़ता है ……..”। इस संग्रह में कवि की कविता के नए रंग भी देखने को मिलते है। कवि निजी पीड़ा, निजी सुख-दुख से ऊपर उठ मानव, मानवता और जगत् की चिन्ता करता भी दिखाई देता है। इसी संग्रह में एक लम्बी कविता ‘महात्मा बुद्ध’ भी है, जिन के शांति और अंहिसा के उपदेश की आज समस्त जगत् को आवश्यकता है।
अन्य भी अनेक विविध भावों भरे गीत इस संकलन में संकलित हैं जैसे ‘वैसाखी’ तथा ‘दीवाली के दीप जलाओ’- जिन में कवि ने त्यौहारों की उमंग में जीवन की निराशा धोने का प्रयास किया है, ‘मजदूरिन’ में सब ओर से शोषित प्रताड़ित मजदूर स्त्री का मार्मिक चित्र खींचा है, ‘कवि से किसान बन’ में यथार्थ ज्ञान दे कर मस्त कवि को श्रमिक के साथ श्रम करने की प्रेरणा दी है, ‘मानव अपनी लघुता जानो,’ ‘कोई भी इन्सान न पूरा’, ‘जज़बात और जिन्दगी’, ‘साथी दुख से सुख डरता है’ में कवि का जीवन दर्शन तथा अध्यात्म उभर कर आया है और कुछ गीतों में इन सब से बिल्कुल अलग वीर रस का चित्र चित्रित है जैसे – ‘बरकी के मैदान में’, ‘हिमालय पर’।
‘सपने और धड़कन’ में कवि निर्मोही ने अपने छः मुक्तक भी संकलित कर नई शैली का परिचय दिया है -उक्त संग्रह में संकलित रचनाएं कवि की काव्ययात्रा के नए सोपानों का प्रमाण देती हैं। कहीं अतुकान्त और कहीं उर्दू के शब्दों से युक्त गज़ल शैली को अपना कर कवि ने शिल्प की दृष्टि से भी नए प्रयोग किए हैं।
निर्मोही जी का यह दूसरा काव्यग्रंथ ‘चाँद उतर धरती पर आओ’ 103 गीतों का संग्रह हैं इसकी भूमिका ‘मैं और चांद, में कवि कहते हैं – चाँद भले ही वैज्ञानिकों के लिए एक पाषाण खण्ड मात्र हो, परन्तु मैं तो उसे धड़कनों से मंडित तथा सजीव समझता आया हूं। जिंदगी की उदास एवं सुनसान घड़ियों में मैंने उससे घंटों बातें की हैं। उसे दुःख सुख का साथी समझ अपनी कही तथा उसकी सुनी है। ……. आज भी उसी चिराभिलाषा में ‘चाँद उतर धरती पर आओ’ की कामना करता हुआ यथा तथा जी रहा हूँ। काश कि वह इन्हें सुन व्यथा भार को बंटा, रिसते घावों को सहला जाता।’
इस प्रकार चाँद को माध्यम बना कर अनेक गीतों में कवि ने अपने सुख-दुख, आशा-निराशा, विस्मय-जिज्ञासा, आनंद-उपालंभ, प्रश्न-उत्तर, वेदना, व्यथा सब प्रकार के भावों को अभिव्यक्त किया है। कुछ गीतों में निर्माेही जी ने चाँद से हटकर भी अपने मनो भावों को अभिव्यक्त किया है। जिन में कभी वह आशा से भर कर कहता है – ‘युग-युग तक जलते दीप रहें’ और कभी निराशा से भर कर कहता है – ‘गीत मधुर सा कैसे गाऊँ’। विरह व्यथा का भी अत्यन्त मार्मिक चित्रण अनेक गीतों में मिलता है। शिल्प की दृष्टि से सभी गीत गीतिकाव्य का सुन्दर उदाहरण है। कुछ गीतों का आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से गायक कलाकारों द्वारा गायन भी प्रस्तुत किया गया है। करुण रस भीगे अनेक गीत तो महादेवी जी के गीतों की स्मृति दिला देते हैं –
मुझे न अब यह दुनिया भाती,
क्षणिक विकल सा उर बहलाती,
सहने दो अब विरह वेदना,
भुला दिया जब मिलन पुराना।
संक्षेप में ‘चांद उतर धरती पर आओ’ ‘निर्मोही’ जी का एक अद्भुत गीत संग्रह है, जिसमें कवि ‘मेघदूत’ के कालिदास की तरह चाँद को केवल अपनी पीड़ा की पुकार ही नहीं सुनाता अपितु उसे नीचे उतार कर सामने बैठा कर, गले मिल कर सुख-दुःख सांझे कर लेने चाहता है
डॉ भगवानदास ‘निर्मोही’ की 36 कविताओं/गीतों तथा यह संग्रह सन् 1972 में प्रकाशित हुआ। संग्रह की भूमिका ‘बिम्ब और प्रतिबिम्ब’ में कवि शीर्षक की सार्थकता की व्याख्या करते हुए कहते हैं – ‘‘—-रूपहले जगत् से बहुत दूर……….. मैं भटक ही तो रहा था—– किसी ने थमा दिया मेरे कम्पित करों में अलौकिक सपनों का अभिनव दर्पण, ………मुझे उस दर्पण में अपनी सूरत के साथ अक्सर उस की सूरत भी दिखाई देती रही है—– उसी से मुझे अपना और अपनी मंजिल का पता मिलता है—— ।” ‘ तेरा दर्पण मेरी आँखें’ की विशिष्टता यह है कि इन सें लौकिक-अलौकिक, प्रेमिका और परमात्मा, प्रेम और भक्ति सभी कुछ घुल मिल से गए हैं। हर बिम्ब में एक विशिष्ट अलौकिकता की आभा छाई हुई है। भावाभिव्यक्ति, शिल्प ,शैली, भाषा सब में पिछली कृत्तियों से उत्तरोत्तर प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। उक्त संग्रह में कुछ गीत कवि की चिर संगिनी प्रेम व्यथा के चित्र है, परन्तु उस से ऊपर उठकर कवि जब संसार में चारों ओर देखता है तो पाता है कि यहाँ सब मुखौटे लगाए है बाहर से कुछ और तथा भीतर से कुछ और हैं और थोड़ी सी शक्ति पाते ही मानव स्वयं को भगवान मानने लगता है।
कवि जगत् और मानव के कल्याण कुछ करना भी चाहता है। कवि ये भी समझता है कि मनुष्य का ‘जीवन तो लघु सा तिनका’ ही है जिसे सही दिशा दिखाना अति आवश्यक है। मानव मन हमेशा सांसारिक मोह और ईश्वर भक्ति की दुविधा में डोलता रहता है। दोनों की तुलना बहुत सुन्दर और प्रभावशाली ढंग से कवि ने ‘दो पति’ नामक कविता में की है।
हाथ में थामे दर्पण में कवि अन्य भी अनेक बिम्ब देखता है जिसमें सहज ग्रामीण सौन्दर्य बिखेरती ‘ग्राम बाला’ भी है , खग-खगी के प्रेम का ‘बन्धन’ भी है और प्रिय के प्रति गहन प्रेम की अभिव्यक्ति भी है ,नवनिर्मित बांगला देश का अभिनन्दन भी है और वीर रस की गर्जना से भरा ‘आह्वान’ भी है और संसार से पीड़ित कवि द्वारा ‘राम’ से शरणागति की प्रार्थना और आत्म समर्पण भी है । ‘तेरा दर्पण मेरी आँखें’ में निर्मोही जी ने 7 मुक्तक भी संकलित किए हैं ।
‘त्रिवेणी से त्रिलोकी’ डॉ भगवान दास ‘निर्मोही’ द्वारा रचित महाकाव्य का प्रथम खण्ड है। खेद है कि इसे वे पूरा न कर पाए, इस की भूमिका – ‘प्रेरणा’ में वे अपनी योजना के बारे में लिखते हैं – ‘‘बहुत दिनों से मैं एक महाकाव्य लिखने की धुन में था, प्रश्न था उदात्त चरित्र मिल पाने का। श्रद्धेया श्रीमती इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनकर हमारे देश की बागडोर सम्भालते ही—— मुझे लगा कि महाकाव्य के योग्य, आदर्श जीवन तो मेरे सम्मुख ही है ——- नाम सूझा – ‘त्रिवेणी से त्रिलोकी’…….’’
इस काव्य के ‘आमुख’ में डॉ गणपति चन्द्र गुप्त ने भी लिखा – ‘‘विश्व की महान् महिलाओं में श्रीमती इन्दिरा गाँधी का विशिष्ट स्थान है। उन्हों ने अपनी अद्भुत प्रतिभा, प्रशासनिक योग्यता, चारित्रिक दृढ़ता एवं कर्मठता के बल पर एक ऐसे सबल व्यक्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत किया है ——-मुझे प्रसन्नता है कि डॉ भगवान दास ‘निर्मोही’ ने ‘‘त्रिवेणी से त्रिलोकी’’ में श्रीमती गाँधी के जीवन की घटनाओं को अत्यन्त ही सहजता से चित्रित किया है।’’
निर्मोही जी इसे महाकाव्य के रूप में तीन खण्डों में प्रस्तुत करना चाहते थे – प्रियदर्शिनी, श्रीमती इन्दिरा गाँधी तथा प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी। उत्साहपूर्वक रचना हो रही थी पर अभी प्रथम खण्ड ही पूरा हुआ था कि 1984 में श्रीमती गाँधी की हत्या कर दी गई। कवि पर वज्रपात सा हुआ, बुद्धि जड़वत् हो गई, और महाकाव्य हमेशा के लिए अधूरा रह गया। तब इस प्रथम खण्ड को ही त्रिवेणी से त्रिलोकी नाम से प्रकाशित किया गया। इन्दिरा हत्याकाण्ड के कारण कवि इतने अधिक उद्वेलित हो गए कि वे इन्दिरांजलि तो लिख गए पर उन का स्वप्न महाकाव्य ‘त्रिवेणी से त्रिलोकी’ अधूरा ही रह गया। पर यह काव्य जितना भी है अत्यंत प्रभावशाली बन पड़ा है। इन्दिरा के संघर्शषील आरम्भिक जीवन बहुत सुन्दर सूक्ष्म और प्रभावशाली चित्रण भारत के स्वतन्त्रता संग्राम की पृष्ठभूमि के साथ इस काव्य को अति विशिष्ट बना देता है।
श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या से जिस प्रकार पूरा विश्व स्तब्ध रह गया था उसी प्रकार निर्मोही जी की लेखनी जो उस महान नेत्री पर महाकाव्य रच रही थी एकबारगी सहम कर चुप हो गई। इन्दिरांजलि उस घड़ी कवि के हृदय में उमड़े शोक और दुःख में डूबी इन्दिरा जी के जीवन की झलकियों का धारा प्रवाह वर्णन है। डॉ मनमोहन सहगल के शब्दों में ‘‘……… उस का अन्तर्मन रुदन कर उठा, चीत्कार करने लगीं कवि की संवेदनाएं और मुख पर राष्ट्रीय अवमानना की कालिख पोते कवि की लेखनी अश्रुगान को अभिव्यक्ति देने लगी।’’
स्वयं कवि के शब्दों में ‘‘…….. उनका बलिदान अन्तर के तारों और धड़कनों में स्वर भर गया। इसी धुन में कुछ एक दिनों में श्रद्धांजलि के रूप में एक स्तवक तैयार हो गया। इन पदों में उन की गरिमा तथा मेरी पीड़ा की अभिव्यंजना मात्र है।’’
‘इन्दिरांजलि’ एक लम्बी कविता के रूप में रचित हुई है, जिसमें 90 मुक्तक हैं। इन सभी में शोकपूर्ण संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के साथ-साथ श्रीमती गांधी के व्यक्तित्व की दृढ़ता, सहनशीलता, अडिगता, एवं संकल्पशीलता के साथ-साथ उन के प्रधानमंत्रीत्व काल के कीर्तिमान तथा जीवनवृत्त की झलकियां भी चित्रित हुई हैं। इन्दिरांजलि उस घड़ी कवि के हृदय में उमड़े शोक और दुःख में डूबी इन्दिरा जी के जीवन की झलकियों का धारा प्रवाह वर्णन है। डॉ मनमोहन सहगल के शब्दों में ‘‘……… उस का अन्तर्मन रुदन कर उठा, चीत्कार करने लगीं, कवि की संवेदनाएं और मुख पर राष्ट्रीय अवमानना की कालिख पोते कवि की लेखनी अश्रुगान को अभिव्यक्ति देने लगी।’’ स्वयं कवि के शब्दों में ‘‘…….. उनका बलिदान अन्तर के तारों और धड़कनों में स्वर भर गया। इसी धुन में कुछ एक दिनों में श्रद्धांजलि के रूप में एक स्तवक तैयार हो गया। इन पदों में उन की गरिमा तथा मेरी पीड़ा की अभिव्यंजना मात्र है।’’
‘इन्दिरांजलि’ एक लम्बी कविता के रूप में रचित हुई है, जिसमें 90 मुक्तक हैं। इन सभी में शोकपूर्ण संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के साथ-साथ श्रीमती गांधी के व्यक्तित्व की दृढ़ता, सहनशीलता, अडिगता, एवं संकल्पशीलता के साथ-साथ उन के प्रधानमंत्रीत्व काल के कीर्तिमान तथा जीवनवृत्त की झलकियां भी चित्रित हुई हैं।इस प्रकार इन्दिरांजलि कवि निर्मोही की भावनाओं और संवेदनाओं का धारा-प्रवाह प्रवाह है जिस में पाठक ऐसा बहता है कि काव्य को आरम्भ करने के बाद अन्तिम पंक्ति पर ही रुकता है। सभी छन्द बहुत सुन्दर बन पड़े हैं। सभी 90 छन्दों का अन्त ‘हो गया’ शब्दों से होता है। जो कवि के काव्य सामर्थ्य का द्योतक है। प्रत्येक पृष्ठ पर श्रीमती इन्दिरा गांधी के विविध भंगिमाओ के रेखाचित्र हैं जो इस काव्य को और भी प्रभावशाली बनाते हैं।
सन् 1982 में प्रकाशित ‘श्रद्धा शतक’ निर्मोही जी की एक बिल्कुल भिन्न प्रकार की रचना है। यह एक चरित काव्य है। इस के 101 पद्यों में कवि ने अपने संन्यासी मित्र ऋषि केशवानंद जी का जीवन परिचय तथा गुणगान किया है। इस प्रबन्धात्मक रचना की भूमिका – ‘प्रेरणा तथा प्राप्ति’ में निर्मोही जी लिखते हैं – ‘‘…….ऋषि केशवानंद मेरे उन श्रद्धेय साथियों में से हैं जो आध्यात्मिक उजालों को पा ही नहीं गए बल्कि आगे भी बिखेर एवं फैला रहे हैं। वे अनेक दीपों को सांसों का स्नेह और ब्रह्म की बाती दे अविराम, अजस्र प्रकाश जुटाने एवं फैलाने में समर्थ बना रहे हैं। ……….. पापनाशिनी गंगा के पावन तट पर बसा ‘निर्धन निकेतन’ एक प्रकाश पुंज एवं स्तम्भ का काम कर रहा है…………… इस ज्योति स्तम्भ के स्पन्दन एवं प्राण श्रद्धेय ऋषि जी के चरणों में कोई और लौकिक भेंट चढ़ाने में असमर्थ होते हुए, नत मस्तक मैं यह ‘श्रद्धा शतक’ उनके कर कमलों में सौंप रहा हूँ……….।’ इस रचना में ऋषि जी के जीवन परिचय के बाद उन की भक्ति, शक्ति और सेवा की महिमा गाई गई वास्तव में
ऋषि केश्वानंद की यह काव्यात्मक जीवनी कवि निर्मोही द्वारा अपने मित्र को समर्पित श्रद्धा स्तवक है।
‘केवल मैं हूँ’ का प्रकाशन कवि भगवान दास निर्मोही के देहावसान के पश्चात उनके परिवार और मित्रों के सत्प्रयासों से हुआ। वे लगभग
पच्चीस वर्षों से ‘केवल मैं हूँ’ तुकान्त वाले छन्दों को लिख-लिख कर संकलित करते जा रहे थे।
पाण्डुलिपि के रूप में प्राप्त इस संग्रह का सम्पादन उन के परम मित्र डॉ मनमोहन सहगल ने किया । ‘केवल मैं हूँ: मोह भंग का परिप्रेक्ष्य’ नामक अपने समीक्षात्मक किन्तु आत्मिक भाव भरे लेख में वे लिखते हैं- ‘‘……… कवि ‘निर्मोही’ ने बहुत सहा, ‘बुरा बुराई न छोड़े तो अच्छा अच्छाई क्यों त्यागे ?’ के सिद्धान्त से बंध कर हर कदम पर उस का मोहभंग होता रहा ………… इस काव्य का प्रत्येक छंद कवि के गम्भीर अनुभवों, उदार प्रदायों और बदले में संकीर्ण प्राप्तियों को लक्ष्य कर रहा है। लोक-जीवन में कल्याण बांटने वाला लोक-छल का भागी बनता है, तो अपनी कमज़ोरी, सरलता, भोलेपन और सहज मनोद्गारों को ही उस का कारण मान बैठता है। ‘केवल मैं हूँ’ कहकर अपने को ही व्यंग्य और उपहास का पात्र करार देता है;………….’।
कवि की सदा-सहचरी पीड़ा और व्यथा जो कभी संसार की उपेक्षा से जन्मी तो कभी किसी प्रिय के विश्वासघात से, कभी अकेलेपन से तो कभी अभावों से, कभी समाज और व्यक्तियों के भ्रष्टाचार से जन्मी तो कभी पीड़ित के प्रति संवेदना से – इस संग्रह के प्रत्येक छंद में इस प्रकार अनुस्यूत हो गई है कि सहृदय के अन्तस् को सहज ही अश्रु-आर्द्र कर जाती है -परन्तु जीवन की समस्त पीड़ाएँ और निराशाएं कवि जिस शक्ति
के भरोसे सह जाता है वह ही अन्तिम सम्बल और परम लक्ष्य है। ‘उस’ से साक्षात्कार के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता – न दुःख, न सुख, न अस्तित्व और न ही अहंकार।
डॉ मनमोहन सहगल के शब्दों में – ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि जब-जब भी कवि के अंतस को किसी भाव या विचार ने आहत किया, उसने लेखनी उठाई और अपनी संवेदनाओं को शब्दों का आकार दे डाला। ‘‘मैं रोया, तुम कहते छन्द बनाना’’ वाली प्रासंगिकता यहाँ पूरे काव्य में मौजूद है, क्योंकि सचमुच यह समूचा काव्य ही कवि के आहों-अश्रुओं का लेखा जोखा है। ‘केवल मैं हूँ’ में किसी प्रकार के क्रम का अभाव काव्य के समस्त पदों को मुक्तक बना देता है, इसीलिए यह कहना कि इसमें कवि के विभिन्न ‘मूडों’ जो मोह-भंग की देन हैं, की अभिव्यक्ति हुई है, परमोचित है।’
कविता के प्रति मेरा प्यार मेरे ससुर पिता श्री डॉ॰ भगवान दास निर्मोही जी की ही देन है। शादी के पश्चात उनके द्वारा लिखित विभिन्न विषयों पर लिखी कविताएँ पढने और सुनने का सैभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी कविताएँ पढ़ कर उनकी लेखनी पर गर्व भी महसूस हुआ और कविता के प्रति प्रेम भी उत्पन्न हुआ।मंच से विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए मैं अक्सर उन की कविताओं का वाचन करता रहता हूँ ।
जीवन की पथरीली पगडंडियों पर प्रथप्रदर्शक, जीवन के अंधेरों के प्रकाशस्तम्भ एवं उन्नत जीवन जीने की कला सिखाने वाले हमारे प्रगतिशील पिता जी की रचनाओं में व्यक्त जीवन-दर्शन, अध्यात्मवाद, भ्रष्ट होते हुए समाज में मानव का क्रन्दन एवं जीवन का अकेलापन हमारे लिए अबूझ है। छात्रा -जीवन में उनकी कविताएं मंच पर गा कर खूब पुरस्कार प्राप्त किए, प्राध्यापक रूप में भी मंच संचालन में डैडी के मुक्तक गाकर प्रशंसा पाई। सागर की तरह गहरी उनकी रचनाएं हमें सफल जीवन जीने की राह दिखाती हैं। मेरा शत शत नमन है हमारे महान पिता को।
"डॉ भगवान दास निर्मोही" जो दुनिया के लिए एक कवि, एक अध्यापक, एक समाजसेवी थे , हमारे लिए वे हमारे ग्रेट डैडी थे। अपने कमरे में किताबों से घिरे हुए न जाने डायरी में क्या लिखते रहते थे। फिर समझ में आया कि उन डायरियों में एक अनमोल धरोहर है जो हमारे डैडी इस दुनिया को देकर गए हैं। बहुत ही सरल और भावुक इंसान थे वे। जीवन के किस मोड़ पर कौन सी भावनाओं से वे प्रभावित रहे होंगे यह उनकी कविताओं में बहुत स्पष्ट झलकता है । उनकी लेखनी में एक जादू सा लगता है जो उन की रचनाओं को पढ़ने पर मन पर छा जाता है। हमें गर्व है कि हम एक ऐसी महान हस्ती की संतान है । शत-शत प्रणाम।
डैडी की कविताएँ, उनकी सोच और उनका व्यक्तित्व हमेशा मुझे प्रेरित करते रहे और अभी भी प्रेरित करते हैं ज़िंदगी में ऊँची सोच रखने के लिए, इंसानियत से प्यार करने के लिए, कर्मठता से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जुटे रहने के लिए और निडर होकर आगे बढ़ने के लिए। ‘टूटे पहियों का रथ’ और ‘केवल मैं हूँ’ मेरे प्रिय काव्य-संग्रह हैं। उनका लेखन के प्रति समर्पण अतुलनीय था और उनकी सोच हमेशा प्रगतिशील थी। मुझे अभी भी उनकी कविताएँ बहुत औचित्य पूर्ण एवं प्रासंगिक लगती हैं, ख़ासतौर से उनकी सामाजिक और मानवतावादी रचनाएँ।
डॉ॰ भगवान दास निर्मोही जी की पुत्री होने पर मुझे गर्व है । मैंने अपने पिता जी को अनेकों बार मंच पर कविता पाठ करते देखा है। जिस बेबाकी से वे अपनी बात कहते थे मैं उसकी कायल थी। विभिन्न विषयों पर व्यंग्य प्रस्तुति का उनका अंदाज बहुत अद्भुत था। वह महिला सशक्तिकरण के भी बहुत बड़े समर्थक थे। मैं आज जो भी हूं उनकी प्रेरणाओं की वजह से ही हूं।
समर्पित प्रेम
कवि भगवान दास निर्मोही की जीवन संगिनी श्रीमती शशिशाला उन की प्रेरणा तो थी ही, अपने परिश्रम, संयम,प्रबंधन कौशल, धनार्जन से घर-परिवार को खूब संभाला और कवि की काव्य रचना की प्रेरणा के साथ-साथ सहयोगी भी बनी। कवि के जाने के बाद भी उन की हस्तलिखित पांडुलिपियों को संभाला और दो पुस्तकों का प्रकाशन करवाया ।
यह अत्यन्त प्रसन्नता एवं सन्तोष का विषय है कि हम अपने पिता जी डा. भगवान दास निर्मोही के कृतित्व को संरक्षित रखने के लिए इस वेबसाइट ‘हिन्दी कवि निर्मोही ' का निर्माण करवाने में सक्षम एवं सफल हो पा रहे हैं। इस के लिए हम सुश्री हिमांशी के आभारी हैं कि उसने समस्त उत्तरदायित्व कुशलता से निभाया है। समस्त परिवार को वेबसाइट के बनने की बधाई और शुभकामनाएँ ।