Description
‘चाँद’ भले ही वैज्ञानिकों के लिए एक पाषाण खण्ड मात्र हो परन्तु मैं तो उसे धड़कनों से मंडित तथा सजीव समझता आया हूँ । जिंदगी की उदास एवं सुनसान घड़ियों में मैंने उससे घंटों बातें की हैं। उसे दुःख-सुख का साथी समझ अपनी कही तथा उसकी सुनी है। ज्यों -ज्यों धनिष्ठता बढ़ती गई मनचाहे धुंधले आकार भी स्पष्ट, सुन्दर तथा आकर्षक प्रतीत होने लगे ; फल स्वरूप यौवनोन्मेष में मोहमयी मदिरा पी मदमस्त सपनों का साम्राज्य सजा कल्पनालोक में विहरता हुआ उसमें प्रतिबिंबित प्रतिमा को पाने के लिए अधीर हो उसके द्वार तक भी पहुँचा । पर दूरी न मिट सकी। बीच में एक बहुत बड़ा व्यवधान था जो आज भी है । वह बहुत ऊँचा था, उसे हाथ छू भी तो नहीं सके । आंँसुओं की अविरल धारा, आहों का बबंडर भी उसे पास नहीं ला सका, मेरे पास और था भी क्या जो उसे बांध सकता, अपनी धरती पर ला सकता। वह आकाश में और मैं धरती पर, फिर मिलन होता भी तो कैसे ? अरमानों से सितारे टूटते रहे ओस कणों से आँसू बरसते रहे। उसने एक चिरन्तन टीस, तड़प एवं पीड़ा का संसार दिया, मस्ती को मिटा कर ही सही; जो आज भी जीवन की अमरनिधि है।
मुझे तो आज भी उसी की कामना है, चाहे उसे अपनी दुनिया में उलझ इधर झांकने का, एक टुक निहारने का अवकाश भी न हो और मेरे गीतों को गुनगुनाने की रुचि भी न हो। मैं तो स्मृति के मधुर क्षणों को बटोर कर उसी के ध्यान में गुनगुनाता रहा हूँ, उसी गुनगुनाहट के कुछ अवशेष यहाँ इन गीतों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आज भी उसी चिराभिलाषा में “चांँद उतर धरती पर आओ” की कामना करता हुआ यथातथा जी रहा हूँ। काश कि यह इन्हें सुन, व्यथा भार को बँटा, रिसते घावों को सहला जाता ।
प्रो० भगवानदास ‘निर्मोही’
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