श्रद्धा शतक

सन् 1982 में प्रकाशित ‘श्रद्धा शतक’ निर्मोही जी की एक बिल्कुल भिन्न प्रकार की रचना है। यह एक चरित काव्य है। इस के 101 पद्यों में कवि ने अपने संन्यासी मित्र ऋषि केशवानंद जी का जीवन परिचय तथा गुणगान किया है। इस प्रबन्धात्मक रचना की भूमिका – ‘प्रेरणा तथा प्राप्ति’ में निर्मोही जी लिखते हैं – ‘‘…….ऋषि केशवानंद मेरे उन श्रद्धेय साथियों में से हैं जो आध्यात्मिक उजालों को पा ही नहीं गए बल्कि आगे भी बिखेर एवं फैला रहे हैं। वे अनेक दीपों को सांसों का स्नेह और ब्रह्म की बाती दे अविराम, अजस्र प्रकाश जुटाने एवं फैलाने में समर्थ बना रहे हैं। ……….. पापनाशिनी गंगा के पावन तट पर बसा ‘निर्धन निकेतन’ एक प्रकाश पुंज एवं स्तम्भ का काम कर रहा है…………… इस ज्योति स्तम्भ के स्पन्दन एवं प्राण श्रद्धेय ऋषि जी के चरणों में कोई और लौकिक भेंट चढ़ाने में असमर्थ होते हुए, नत मस्तक मैं यह ‘श्रद्धा शतक’ उनके कर कमलों में सौंप रहा हूँ……….।’ इस रचना में ऋषि जी के जीवन परिचय के बाद उन की भक्ति, शक्ति और सेवा की महिमा गाई गई वास्तव में
ऋषि केश्वानंद की यह काव्यात्मक जीवनी कवि निर्मोही द्वारा अपने मित्र को समर्पित श्रद्धा स्तवक है।

Description

जीवन में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो अनन्त प्रकाश से अन्धकारमयी गहन गुफाओं, गहरी घाटियों में गिर नारकीय यातनाओं में सिसक-सिसक कर दम तोड़ देते हैं। पर माया ममता की गुरुतम गठरी फैंक, अज्ञान के अभियालों एवं संत्रास में से सुखद सवेरों को ढूंँढने वाले कम ही होते हैं, और उनमें से कुछ इन्हें पा भी जाते हैं। शाश्वत एवं सनातन प्रकाश केवल आध्यात्मिक दीपक की लौ से प्राप्त होता है। ऋषि केशवानन्द मेरे उन्हीं श्रद्धेय साथियों में से हैं जो आध्यात्मिक उजियालों को पा ही नहीं गए बल्कि आगे भी बिखेर एवं फैला रहे हैं। वे अनेक दीपों को सांसों का स्नेह और ब्रह्म की बाती दे अविराम, अजस्र प्रकाश जुटाने एवं फैलाने में समर्थ बना रहे हैं।

                 पापनाशिनी गंगा के पावन तट पर बसा ‘निर्धन निकेतन’ एक प्रकाश पुंज एवं स्तम्भ का काम कर रहा है। यह ज्योति- स्तम्भ सदैवी एवं सार्वभौम हो जाए, इसी मंगल कामना के लिए कहिये; या निर्धन निकेतन की रजत जयन्ती के उपलक्ष्य में कहिये, या लक्षचण्डी महायज्ञ की पूर्णाहुति के लिए कहिये, या ऋषि जी के प्रति अन्तरंग वयस्य भाव व्यक्त करने के लिए कहिये, किसी भी भावना से कहिये इस ज्योति स्तम्भ के स्पन्दन एवं प्राण श्रद्धेय ऋषि जी के चरणों में कोई और लौकिक भेंट चढ़ाने में असमर्थ होते हुए, नत मस्तक मैं यह ‘श्रद्धा- शतक’ उनके कर कमलों में सौंप रहा हूं। ऋषि जी के विविधताओं, संघर्षो सफलताओं से भरे जीवन को यद्यपि एक शतक में आंँकना तो असम्भव है फिर भी मैं ने अपने फक्कड़पन में एक झलक मात्र प्रस्तुत करने का पंगु प्रयास किया है। सच पूछिये तो उनके अभी तक के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आंँकने के लिए कई महाकाव्य भी पर्याप्त एवं सक्षम नहीं होंगे। वस्तुतः इनका सहज, सरल, सादा, सौम्य, साधु, शुचि, शान्त, सुसंस्कृत, सुशील, सभ्य, सम्भ्रान्त, सत्यनिष्ठ, शक्तिसार, सद्गुण सम्पन्न स्वभाव एवं जीवन सराहणीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। इसी का चित्रण मैं ने तुच्छ तूलिका से कवि धर्म को निभाते हुए किया है। 

                         मुझे विश्वास है कि ईश्वरीय अनुग्रह एवं अनुकम्पा-प्रेरणा से, जग जीवन के झक्खड़ में टिमटिमाते, बुझते-से, आतुर आतंकित अध्यात्म दीप अमर स्नेह पा शाश्वत जलेंगे, प्रकाश में जीएँगे और औरों के लिए प्रकाश फैलाएँगे ।

‘भगवानदास ‘निर्मोही’

27- प्रोफेसर्ज कालोनी,

कैथल | (हरियाणा)