निर्मोही

‘निर्मोही’ कवि भगवानदास ‘निर्मोही’ की काव्ययात्रा का तीसरा सोपान है। अपने उपनाम को शीर्षक बना कर लिखी गई इस रचना के नाम से ही स्पष्ट है कि इस में विरक्ति और निर्मोह का स्वर प्रधान है। वैसे देखने में यह एक लम्बी कविता दिखाई देती है, जिसके हर छंद का अन्त निर्मोही शब्द से होता है, परन्तु एक सूक्ष्म कथासूत्र भी इस में विद्यमान है अतः इसे खण्डकाव्य कहा जा सकता है। इसे कवि ने अपने गुरु स्वामी हीरानन्द पुरी जी को समर्पित किया है। यद्यपि इस का प्रकाशन वर्ष 1966 है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह रचना कवि ने उन दिनों लिखी थी जब वे संन्यासी बन कर गुरु के आश्रम भ्याला नंगल में रहे थेऔर पहली बार अपना उपनाम घोषित किया था।
रचना का परिचय देते हुए कवि ‘निर्मोही’ की भूमिका – ‘विरक्ति’ में लिखते हैं- ‘‘……आसक्ति का प्रसाद मिला आहें, आँसू ले सिसकना, बिलखना……. मैं खोजने लगा दिलजोई का साधन प्रकृति प्रेयसी में………… पर उस रूप में परिवर्तन होता देख हृदय हाहाकार कर उठा ………. मन ढूंढने लगा एक शाश्वत सहारा……… फलतः उसने पहचान लिया एक ऐसी शक्ति को, जो चिरकाल से उस रूप की प्रेरणा थी। उसे जानकर वह विस्मित हो उठा और लगा अधीर हो ‘उसे’ ढूंढने। खोज लेने पर मन ने महा मिलन चाहा……… अन्त में वह विरक्त निर्मोही बन उस दिव्य लोक को लख उसी में समा गया।’’ उस परम आनन्द का अनुभव कर कवि संसार के सब लोगों को उस अनुभव के लिए आमन्त्रित करता है:-
आओ, मस्त बनें और झूमें,
हो कर हम सब निर्मोही।
मुस्काते ही रहें चिता तक
मोह छोड़ बन निर्मोही।।
इस प्रकार ‘निर्मोही’ ‘स्थूल’ से ‘सूक्ष्म’ तक मानव मन की अन्तर्यात्रा है जो भारतीय दर्शन, अध्यात्म और स्वर्ग नरक के मिथकों से प्रभावित है। इस की सरल, स्पष्ट, चित्रात्मक, मधुर भाषा में अभिव्यक्ति इसे सर्वग्राह्य तथा अति सम्प्रेषणीय बना देती है। दर्शन और अध्यात्म का विषय होने पर भी कहीं कलिष्टताऔर दुरूहता नहीं है। इसकी संगीतमयी लय बच्चन जी की मधुशाला की याद दिलाती है

Description

विरक्ति

अतुल आमक्तिमय सीमित जीवन-जंजाल में जब मानव मकड़ी की भाँति छटपटाने लगता है, तो वह किसी अलौकिक एवं आन्तरिक शक्ति की प्रेरणा से उस जाल से मुक्त हो विरक्ति में विहरना चाहता है। ‘धम्मपद’ में भी कहा है, “जो राग में रत है वे जैसे मकड़ी अपने बनाये जाल में पड़ती है, वैसे ही अपने बनाये स्रोत में पड़ते हैं। धीर पुरुष इस स्रोत को भी छोड़ अर्थात् छेद कर सारे दुःखों को त्याग कर आकांक्षा रहित हो चल देते हैं।” पर जीवन ज्वाला में झुलसा व्यक्ति ही सोने की भाँति निखर उठता है; अधिकतर तो भस्मात् हो, मिट ही जाते हैं; और रह जाती है, शेष-अरमानों की धूल। समय की सरिता में उनकी अवशेष भस्म-निशानियाँ भी बह जाती हैं।

आसक्ति का प्रसाद मिला आहे, आँसू ले सिसकना, बिल- खना और मिले जल-जल कर जीने हित अंगार बने कुछ आकुल अरमान। यथार्थ के आघात से ममहित हो, मैं खोजने लगा दिलजोई का साधन प्रकृति प्रेयसी में। उसमें रूप था, रस था, आकर्षण था और था एक अद्भुत अपनापन ।

जो निमंत्रण देता था दिल बहलाने को आनन्द पाने को। मैं उसी में खो गया और भूल गया चाँद सितारों की चमक में अपनी कसक । सागर, पर्वत, वायु, बहार, उषा, रजनी सभी में एक अभिनव रूप देखा। उनकी मदिर मुस्कानों में पूर्व अनुभूत मुस्कानों की सी ही तो मादकता थी, जो आत्म विभोर बना देती थी। मैंने आँसू पोंछ, उन सरल, स्वाभाविक मुस्कानों को निरखने में रमा दिये अपने नयन पर उस रूप में परिवर्तन होता देस हृदय हाहाकार कर उठा । सुमनों की सुकुमार पत्तियों के मुरझाने में मुझे पहले- सा-ही छल दिखाई दिया। चांद आया, चला गया, रात आई चली गई; उषा दुपहरी की धूप से झुलसी, सांँझ में सिसकियों भर तिमिर की काली चादर में ओस कणों के मिस रात भर रोती रही। स्थिरता केवल कल्पना थी, भूल थी। मनमोहक लुभाने वाले आकार डरावने दिखाई देने लगे। मन ढूँढने लगा एक शाश्वत सहारा विकल भावनाओं एवं अधूरी आशाओं के लिए। फलतः उसने पहचान लिया एक ऐसी शक्ति को जो चिरकाल से उस रूप की प्रेरणा थी। उसे जानकर यह विस्मित हो उठा और लगा अधीर हो, ‘उसे’ खोजने । खोज लेने पर मन ने महामिलन चाहा। उस परम पावन शक्ति में प्रवेश पा लेने तक उसे शान्ति न मिलो अन्त में

वह विरक्त, निर्मोही बन, उस दिव्य लोक को लख उसी में समा गया। वस्तुतः यह मानव जीवन की मान्यताओं की पराकाष्ठा है। यही उसकी मन चाही मंजिल है। इसे पा कुछ पाना शेष नहीं रहता। जब तक कामनाएंँ एवं लालसाएँ नटी सा नाच नचाती रहती हैं, तब तक मानव उस चिर वांच्छित परम पुनीत महान को पा समरस हो, उसी दिव्य में नहीं समा सकता – यद्यपि आत्मा, आतुर है, उत्सुक है, युग-युग से उस महा मिलन के लिए ।

यह मेरी जीवन कहानी, मानव जीवन की कहानी ही तो है; जिसका आरम्भ सृष्टि से बहुत पूर्व और अन्त प्रलय के पश्चात होता है।

यह रचना प्रातः स्मरणीय स्व० श्री स्वामी हीरानन्द जी पुरी को सश्रद्धा समर्पित है ।

प्रो० भगवानदास ‘निर्मोही’

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