डॉ भगवान दास ‘निर्मोही’ - एक संघर्षशील काव्य व्यक्तित्व की कथा

डॉ भगवान दास निर्मोही उत्तर भारत के हरियाणा एवं पंजाब प्रान्तों के प्रसिद्ध कवि थे - जिन्होंने हिन्दी में सर्वरंगी कविता लिखी। उनके कविता के विषय शृंगार से लेकर अध्यात्म तक, देशभक्ति से लेकर व्यंग्य तक, शौर्य से लेकर वैराग्य तक, प्रकृति से लेकर नीति तक ,फुटकर कविता से लेकर गीत और खण्डकाव्य तक विस्तृत हैं।
डॉ. निर्मोही सुन्दर सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी थे। अपने हंसमुख विनोदी स्वभाव, परोपकारी समाजसेवी मानस, सुदृढ़ प्रेरणास्रोत से युक्त नेतृत्व भाव के धनी होने के कारण शैक्षिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में अत्यन्त लोकप्रिय थे। गहन आध्यात्मिक चेतना से सिंचित उनके अहंकार रहित, सदा क्षमाशील, प्रत्येक की सहायता को तुरंत आतुर स्वभाव के कारण वे एक ऐसे फलदार वृक्ष बन गए थे जिस की छाया में कितनी काव्य प्रतिभाएं कितने विद्यार्थी, कितने मित्र बन्धु त्राण पाते रहे और प्रेरणा की प्राणवायु पा नवजीवन में पथ बढ़ाते रहे।

डॉ. भगवान दास ‘निर्मोही’ का अपना जीवन कड़े परिश्रम और संघर्ष की कहानी है, जो पंजाब की पटियाला रियासत के नाभा कस्बे के निकट के छोटे से गांव ‘ककराला’ से शुरु होती है। यही ज्येष्ठ 18, संवत् 1988 वि. तदनुसार 29 मई सन् 1931 ई. को एक कुलीन वासिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में पं. नत्थूराम और श्रीमती गौरां के पुत्र के रूप में आप का जन्म हुआ। आप के दादा पं. यमुनादास काशी से शिक्षा प्राप्त प्रकाण्ड पण्डित, ज्योतिषाचार्य और आयुर्वेदाचार्य थे जिन का सब ओर नाम था। दुर्भाग्यवश 2-3 वर्ष की बाल्यवस्था में ही माँ परलोकवासिनी हो गई। तब अपनी छः वर्षीय बड़ी बहन कमलाके साथ उन्हें अपनी दादी श्रीमती विशनी देवी की गोद में आश्रय मिला। दादा भी नहीं रहे थे। पिता विशेष पढ़े लिखे नहीं थे, ब्राह्मण यजमानों की यजमानी से मिली दान दक्षिणा तथा सांझे के हलवाई के कारोबार से प्राप्त सीमित आय से जीवन चला।

नन्हें भगवान दास को शिक्षा की अद्भुत लगन थी। गांव के स्कूल में चौथी कक्षा तक की शिक्षा उपलब्ध थी। उस से आगे की पढ़ाई पांच कि.मी. दूर के कस्बे नाभा में ही उपलब्ध थी। सो वहां के आर्य समाज स्कूल में दाखिला ले लिया। दादी सुबह चार बजे उठ कर चक्की पर आटा पीसती और रोटी बना कर बांध देती और भगवान दास पैदल-पैदल स्कूल के लिए अलस्सुबह निकल पड़ता और शाम तक घर वापिस पहुंचता। मैट्रिक पास करने के बाद भगवानदास लुधियाना आ गए। अपने चचेरे भाइयों की हौजरी में नौकरी करने के साथ-साथ आगे की पढ़ाई स्वाध्याय से करने लगे ,प्रभाकर, रतन पास किए। भाइयों के व्यावसायिक पत्र व्यवहार अंग्रेज़ी में बड़ी कुशलता से करते थे। हौजरी में ही रहते थे। खाना खाने भाई के घर जाते थे। वे बताते थे कि एक बार ही ज्यादा खाना खाने की कोशिश करते कि दूसरी बार न जाना पड़े। परन्तु चचेरे भाई इस तीव्र बुद्धि, मेहनती, ईमानदार लड़के से जल्दी ही छुटकारा चाहने लगे और उसे वायुसेना में भर्ती करवा दिया। ट्रेनिंग के दौरान एक दिन भगवानदास ने देखा कि मेस में भोजन परोसने के लिए मांसाहारी भोजन में इस्तेमाल हो रही कड़छी से ही शाकाहारी भोजन भी परोसा जा रहा है। तो उन के शुद्ध शाकाहारी मानस को इतनी वितृष्णा हुई कि नौकरी ही छोड़ दी। होशियारपुर जिले में भयाला नंगल स्थान पर गुरु हीरानन्द पुरी जी का आश्रम था, भगवानदास ने वहाँ आश्रय ग्रहण किया और संन्यासी वेश धारण कर लिया। ध्यान, समाधि लगाना सीखा और अपना उपनाम निर्मोही रख लिया। कुछ ही दिन में अपनी कुशाग्र बुद्धि से अध्यात्म के अनेक सोपान पार करते हुए गुरु के काफी निकट आ गए। इस से उन के पूर्व शिष्य भगवानदास से ईर्ष्या करने लगे। गुरु जी ने आदेश दिया कि पहले अपनी सांसारिक भूमिका निभाओ, उस के बाद आना।

अध्यात्म का गहरा अनुभव ले कर भगवानदास लौट आए। पढ़ाई शुरु की, इण्टर किया, एफ.ए. की। दिल्ली एल.एल.बी. में दाखिला लिया पर बीच में ही छोड़ कर कुलवाणु नामक छोटे से गांव में प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाने लगे। साथ-साथ नाभा की सांयकालीन कक्षाओं में एम.ए. हिन्दी में दाखिला ले लिया। पर नौकरी के साथ पढ़ने का पर्याप्त समय न मिलने के कारण अच्छे अंक नहीं आए। अतः नौकरी छोड़ जालन्धर के ओरिएण्टल कॉलेज (लाहौर) से दत्तचित्त होकर संस्कृत एम.ए. की पढ़ाई की और अच्छे अंक प्राप्त किए। फिर कालेज में प्रवक्ता पद के लिए आवेदन करने लगे। अनेक अवकाशीय रिक्तियों पर अध्यापन कार्य किया।

इस बीच 1957 के 22 नवम्बर को उनका विवाह सुश्री शशि बाला से हो गया जिन के परिवार से वे प्रभाकर की पढ़ाई के दौरान सम्पर्क में आए थे जहाँ शशि बाला की मां यमुनादेवी उन की सहपाठी थी। शशिबाला को तभी से पसन्द करते थे। पर कभी कहा नहीं। शशिबाला भी बी.ए. बी.एड. कर जगराओं के एक स्कूल में अध्यापन कार्य कर रही थी। उन्होंने भगवानदास निर्मोही को बी.एड. करने की सलाह दी ताकि स्थाई नौकरी का प्रबन्ध हो सके। तब पत्नी के सहयोग से उन्होंने पटियाला से बी.एड की पढ़ाई की। परन्तु फिर 1960 में कैथल के राधाकृष्ण सनातन धर्म कालेज में संस्कृत प्रवक्ता की स्थाई नौकरी मिल गई। फिर तो कैथल में ही जीवन भर के लिए जम गए। पत्नी शशिबाला को भी राजकीय शिक्षा विभाग पंजाब में शिक्षिका की नियुक्ति मिल गई। वे भी स्थानान्तरण करवाते हुए धर्मशाला से पिहोवा और फिर कैथल राजकीय सी.सै. स्कूल में पहुंच गई। जीवन में कुछ स्थायित्व आया। 1966 में कैथल हरियाणा का हिस्सा बन गया।सन् 1968 में निर्मोही जी ने डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के निर्देशन में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की जिस का विषय था - ‘रीतिकालीन हिन्दी मुक्तक काव्य पर संस्कृत मुक्तक काव्य का प्रभाव’।
अपने प्राध्यापकीय जीवन में निर्मोही जी के व्यक्तित्व के अनेक पक्ष प्रभावशाली रूप में सामने आए। कालेज की समस्त सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र निर्मोही जी ही थे, कितने ही विद्यार्थियों ने उन के निर्देशन में काव्यपाठ, श्लोकोच्चारण, अभिनय, लेखन आदि का प्रशिक्षण पाया और युवा समारोहों में और अन्य प्रतियोगिताओं में पुरस्कार प्राप्त किए। कालेज में राष्ट्रीय कैडेट कोर का प्रभार भी डॉ. निर्मोही ने ही संभाला हुआ था। कितने ही विद्यार्थी एन॰सी॰ सी॰ के माध्यम से भारतीय सेना में जाने के लिए प्रेरित हुए। पर्यटन प्रिय निर्मोही जी विद्यार्थियों के सभी टूरों के भी प्रणेता रहते थे। कभी कश्मीर कभी दक्षिण भारत, कभी राजस्थान कभी आसाम- सम्पूर्ण भारत का दिग्दर्शन उन्होंने विद्यार्थियों को करवाया।

निर्मोही जी कालेज में नियमित रूप से कवि सम्मेलनों का आयोजन करवाते थे जिन से अनेक कवियों की काव्य प्रतिभा सामने आती थी। 1968 में उन्होंने साहित्य सभा कैथल की स्थापना की। इस के माध्यम से नवोदित काव्य प्रतिभाओं को मंच प्रदान किया। बशीर बद्र, ओम प्रकाश आदित्य सरीखे कितने ख्याति प्राप्त साहित्यकार इस सभा के कार्यक्रमों में शामिल होते रहे। सभा से जुड़े नवोदित और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं के 2 संकलन भी काव्य यात्रा नाम से प्रकाशित किए जिन में डॉo अमृत लाल मदान, डॉo राणा गन्नौरी, कमलेश शर्मा, गुलशन मदान, संगीता जोशी, रिसाल जोगड़ा डॉo सुभाष सैनी, शारदा गुप्ता, डॉo विजय दत्त शर्मा, डॉo प्रद्युम्न मल्ला जैसे अनेक साहित्यकारों की साहित्य जगत् में सब उपस्थिति दर्ज हुई। ‘साहित्य सभा कैथल' डॉo निर्माही के स्वेद और रक्त से सिंचित पौधा है जो आज वृक्ष बन अनेक साहित्यकारों को आश्रय प्रदान कर रहा है। ये 12 वर्ष इस के प्रधान रहे। 1993 से रचनाकारों के प्रोत्साहन हेतू इस मंच से पुरस्कारों का सिलसिला भी शुरू किया। मासिक समीक्षात्मक गोष्ठियों में साहित्यिक प्रतिभाओं की परख ,विकास और प्रोत्साहन आज भी यहाँ जारी है।

डॉo निर्मोही अनेक वर्ष तक प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे। 1986 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्ण जयन्ती समारोह में हरियाणा के प्रतिनिधि के रूप में भाग भी लिया। 1985 में उन्हें हरियाणा प्रदेश कांग्रेस शताब्दी समारोह समिति द्वारा सम्मानित किया गया। इस के अतिरिक्त उन्हें हरियाणा प्रादेशिक साहित्य सम्मेलन, संस्कार भारती, साहित्य सभा, जिला प्रशासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। साहित्यकार के रूप में निर्मोही जी की पहचान हरियाणा और अन्य प्रदेशों में कायम है। उन के साथी ,मित्र साहित्यकार, उन के शिक्षु साहित्यकार, जिन के भी सम्पर्क में वे आए, उन के हृदय में घर कर गए और ये आज भी उन की स्मृतियों में प्रेरणास्रोत की तरह विद्यमान है।

डॉo भगवान दास निर्मोही साहित्य के साथ-साथ समाज सेवा में सदा आगे रहते थे। कैथल सेवा संघ के वे सलाहकार रहे और उस की हर गतिविधि चाहे वह नेत्र जांच शिविर हो या कुष्ठ रोगी सेवा योजना, बाढ़ राहत कार्य हो या भूकम्प पीड़ितों को राहत सामग्री एकत्रित कर भेजने का कार्य ,वे कभी पीछे नहीं रहते थे। ये वरिष्ठ नागरिक कल्याण संघ कैथल से भी जुड़े थे और अपना नैतिक दायित्व मान कर वृद्ध जन की सेवा करते थे। एक आयुर्र्वैदिक औषद्यालय की स्थापना और संचालन में भी उन्होंने अति सक्रिय भूमिका निभाई जो श्री अद्वैत स्वरूप आश्रम ढांढ रोड कैथल में स्थित हुआ। कितने ही लोगों को इस औषधालय का सदस्य बनाया और प्रति व्यक्ति 100/- मासिक का चन्दा बांध दिया, जिससे अनेक निर्धनों को औषधि लाभ प्राप्त हुआ। कैथल क्लब, कैथल के भी वे आरम्भिक सदस्यों में से थे जो 70 के दशक में स्थापित हुआ था। काफी देर वे इस के प्रधान भी रहे। इस क्लब की गतिविधियों को सम्पन्न करने में पूरे मनोयोग से सहयोग देते थे। इस के अतिरिक्त मित्रों में, छात्रों में या समाज में से जो कोई भी व्यक्ति उनके पास सहायता के लिए आता, वे तुरन्त उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाते, चाहे उस के लिए शहर से बाहर ही क्यों न ये जाना पड़े।

डॉo भगवान दास निर्मोही के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था उन का अध्यात्म । किशोरावस्था में गुरु हीरानन्द पुरी जी के आश्रम में बिताए समय ने उन को सदा के लिए अध्यात्म से जोड़ दिया। पर ये धार्मिक होने का दिखावा नहीं करते थे। वे सदा 'मैं नहीं चंगा बुरा नहीं कोई' की अवधारणा को लेकर चले। सत्य की खोज में वे विभिन्न सस्थाओं से जुड़ते रहे।
अपने कॉलेज के सामने प्रोफेसर्ज कालोनी बनाने की योजना अपने 10 साथियों के साथ मिल कर बनाई, तो वहां हनुमान मन्दिर की स्थापना भी की, गुरु हीरानन्द पुरी के गुरु भाई स्वामी सारशब्दानन्द जी ने घर के सामने ही अद्वैत स्वरूप आश्रम बनवाया तो उस के साथ पूरी तरह जुड़ गए। मित्र संन्यासी ऋषि केशवानन्द के हरिद्वार स्थित आश्रम निर्धन निकेतन में भी ये अक्सर जाते रहते। उन को निश्छल, अहंकार रहित, सर्व परोपकारी, मान-अपमान में समभाव, मोह रहित कर्म, समस्त सृष्टी से प्रेम भरा गृहस्थ जीवन उन के संन्यासी स्वभाव का ही प्रमाण था।

गृहस्थ में वे विनयी पुत्र,स्नेही भाई, प्रेमी पति और अनुशासन पूर्ण स्नेह भरे प्रेरक पिता थे। 2-3 वर्ष की आयु में माँ को खोने के बाद 21 वर्ष की आयु तक दादी का दुलार पाया और 50 वर्ष की आयु तक पिता का आशीर्वाद पाया। बहन कमला के साथ उन का अदभुत नाता था। सहसा किसी अन्तः प्रेरणा से वे फगवाड़ा बहन को मिलने पहुंच जाते और वे कहती अरे मैं आज ही तुम्हें याद कर रही थी। बहन के हर संघर्ष में ,परेशानी में ,खुशियों में वे उन के लिए अडिग सहारा थे। निर्मोही जी के असमय परलोकगमन के बाद वे लगभग 12 वर्ष प्रतिक्षण उन्हें स्मरण करती हुई जीवित रही। सभी नाते-रिश्तेदारों के हर मौके पर पहुंचने के लिए वे विख्यात थे, सभी के साथ उन्होंने सम्बन्धों को बहुत अच्छे से निभाया।

धर्मपत्नी शशिबाला के प्रति समर्पित प्रेम उन की पुस्तक 'चांद उतर धरती पर आओ' की प्रेरणा बना । जीवन की ऊँची नीची राहों पर वे उनकी ऐसी जीवन संगिनी रहीं जिन्होंने नौकरी, घर, बच्चे सब इतनी कुशलता से संभाले कि निर्मोही जी की साहित्य सेवा, समाज सेवा, घुमक्कड़ी में कभी बाधा न आई। निर्मोही जी आधुनिक विचारों के पिता थे। पांच बेटियों और एक पुत्र को उन्होंने बराबर व्यक्तित्व विकास और शिक्षा के अवसर दिए। पठन पाठन के साथ पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया । उन्हें इस बात की शिकायत रही कि कैथल में और अधिक गतिविधियों में भाग लेने के अवसर बच्चों को नहीं मिल पाए। ऐसे माता-पिता की प्रेरणा, मार्गदर्शन और अनुशासन में सभी उच्च शिक्षा प्राप्त कर आत्म निर्भरता से जीवन में आगे बढ़ रहे हैं। पुत्र इंजीनियर बना, एक पुत्री डाक्टर, 2 पुत्रियों ने अंग्रेजी, एक ने हिन्दी और एक ने कम्प्यूटर में पी-एच॰डी॰ की। अपने बच्चों पर उन्हें गर्व था और बच्चों को गर्व है अपने माता-पिता पर ।2018 में मां के भी चले जाने के बाद उन का आशीर्वाद और स्मृतियां ही उन की थाती हैं।

मुक्त हंसी हंसने और हंसाने वाले निर्मोही जी जहां भी जाते सब को अपना बना लेते। कवि सम्मेलनों का आयोजन करते तो बाहर से आने वाले कवियों का अपने घर पर आतिथ्य कर प्रसन्न होते। फिर घर पर काव्य पाठ का दूसरा दौर देर रात तक चलता। उन के निकटस्थ मित्रों में डा. मनमोहन सहगल और हेमराज निर्मम विशेष थे जिन के साथ छात्र जीवन में संघर्षों से शुरु हुई । यह मित्रता जीवन यात्रा के पाथेय की तरह थी। श्री रामलाल मदान, डॉo राणा प्रताप गन्नौरी, डॉo राम कुमार गुप्ता... वास्तव में नाम गिनाने बहुत कठिन है। सच तो ये है कि उनके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति उनकी मित्रता की डायरी में दाखिल था। वो डायरी जो वो हर रोज आजीवन लिखते रहे। छः वर्ष तक चला भीषण रोग भी उन के जीवट , उन की जिजिविषा और हंसी में कमी न ला सका। न कभी उन्होंने ये कहा कि ये कष्ट मुझे क्यों है और न कभी मृत्यु से भयभीत हुए । यद्यपि 18 मार्च 2002 को सचमुच निर्मोही हो कर भगवानदास निर्मोही जी' ने जीवन से संन्यास ले भगवान के श्री चरणों में दासत्व ग्रहण कर लिया तथापि आज भी वे सब के हृदय में अप्रतिम स्थान ग्रहण किए हुए हैं।