केवल मैं हूँ

‘केवल मैं हूँ’ का प्रकाशन कवि भगवान दास निर्मोही के देहावसान के पश्चात उनके परिवार और मित्रों के सत्प्रयासों से हुआ। वे लगभग
पच्चीस वर्षों से ‘केवल मैं हूँ’ तुकान्त वाले छन्दों को लिख-लिख कर संकलित करते जा रहे थे।
पाण्डुलिपि के रूप में प्राप्त इस संग्रह का सम्पादन उन के परम मित्र डॉ मनमोहन सहगल ने किया । ‘केवल मैं हूँ: मोह भंग का परिप्रेक्ष्य’ नामक अपने समीक्षात्मक किन्तु आत्मिक भाव भरे लेख में वे लिखते हैं- ‘‘……… कवि ‘निर्मोही’ ने बहुत सहा, ‘बुरा बुराई न छोड़े तो अच्छा अच्छाई क्यों त्यागे ?’ के सिद्धान्त से बंध कर हर कदम पर उस का मोहभंग होता रहा ………… इस काव्य का प्रत्येक छंद कवि के गम्भीर अनुभवों, उदार प्रदायों और बदले में संकीर्ण प्राप्तियों को लक्ष्य कर रहा है। लोक-जीवन में कल्याण बांटने वाला लोक-छल का भागी बनता है, तो अपनी कमज़ोरी, सरलता, भोलेपन और सहज मनोद्गारों को ही उस का कारण मान बैठता है। ‘केवल मैं हूँ’ कहकर अपने को ही व्यंग्य और उपहास का पात्र करार देता है;………….’।
कवि की सदा-सहचरी पीड़ा और व्यथा जो कभी संसार की उपेक्षा से जन्मी तो कभी किसी प्रिय के विश्वासघात से, कभी अकेलेपन से तो कभी अभावों से, कभी समाज और व्यक्तियों के भ्रष्टाचार से जन्मी तो कभी पीड़ित के प्रति संवेदना से – इस संग्रह के प्रत्येक छंद में इस प्रकार अनुस्यूत हो गई है कि सहृदय के अन्तस् को सहज ही अश्रु-आर्द्र कर जाती है -परन्तु जीवन की समस्त पीड़ाएँ और निराशाएं कवि जिस शक्ति
के भरोसे सह जाता है वह ही अन्तिम सम्बल और परम लक्ष्य है। ‘उस’ से साक्षात्कार के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता – न दुःख, न सुख, न अस्तित्व और न ही अहंकार।
डॉ मनमोहन सहगल के शब्दों में – ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि जब-जब भी कवि के अंतस को किसी भाव या विचार ने आहत किया, उसने लेखनी उठाई और अपनी संवेदनाओं को शब्दों का आकार दे डाला। ‘‘मैं रोया, तुम कहते छन्द बनाना’’ वाली प्रासंगिकता यहाँ पूरे काव्य में मौजूद है, क्योंकि सचमुच यह समूचा काव्य ही कवि के आहों-अश्रुओं का लेखा जोखा है। ‘केवल मैं हूँ’ में किसी प्रकार के क्रम का अभाव काव्य के समस्त पदों को मुक्तक बना देता है, इसीलिए यह कहना कि इसमें कवि के विभिन्न ‘मूडों’ जो मोह-भंग की देन हैं, की अभिव्यक्ति हुई है, परमोचित है।’

Description

डॉ० भगवान दास ‘निर्मोही’ पंजाब-हरियाणा के उन गिने-चुने कवियों में से हैं, जिन्होंने भावनाओं को सत्य के परम परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति दी है। मधुर वाणी, सरल स्वभाव, संघर्षशील जीवन, पूर्ण आस्था और परोपकारी चिन्तन, ये ही सब तत्व मिलकर ‘निर्मोही’ का व्यक्तित्व गढ़ते थे; अनुभवी जीव थे, इसलिए मनुष्य के अन्तर्मन और उसकी मर्कटी कलाबाजियों को पहचानते थे। कहते हैं ना, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि किन्तु ‘निर्मोही’ के सम्बन्ध में में जोड़ना चाहूँगा कि ‘जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे अनुभवी । जीवन की यात्रा में कवि बहुधा अपनों तथा सांसारिकता- प्रिय लोगों द्वारा अपनी सरलता के कारण छला गया। सहज ही भोले जीवों को दुनिया की कपट-क्यारी में फूल चुनने की आकांक्षा में काँटे ही हाथ लगते हैं। कवि ‘निर्मोही’ ने बहुत सहा, ‘बुरा बुराई न छोड़े तो अच्छा अच्छाई क्यों त्यागे ?” के सिद्धान्त से बंधकर हर क़दम पर उसका मोह भंग होता रहा। जीवन की गोधूलि में तो कवि महसूस करने लगा कि जिन लोगों को वह खून-ए-जिगर पिलाकर पालता रहा, वे ही आस्तीन के साँप प्रमाणित हुए; जिनके पसीने पर कवि ने अपने परिश्रम का खून बहाया था, वे ही उसे उपेक्षित और अवहेलित समझने लगे; जिनकी प्रगति में कवि ने अपने कंधे घायल कर लिए थे, वे सिकन्दर बनकर पूर्ण मस्तराम जीव ‘निर्मोही’ को ही आँखें दिखाने लगे, तो कवि के कल्पना – सपन धूल में मिलकर रह गए। दूसरों को हर्षोल्लास का वरदान देने वाला स्वयं उन्हीं के द्वारा अभिशप्त समझा जाने लगा।

            अपनों और गैरों की खुशियों में ही अपनी खुशियां खोजने वाला परम सन्तुष्ट जीव भगवानदास ‘निर्मोही’ लोगों की नजरों में पराएपन का विष-दंश सहन नहीं कर सका। दूसरों के लिए सदैव वरद हस्त उठाने वाले व्यक्ति का मोह-भंग हुआ, उसने जाना कि जगती केवल लेना जानती है, बदले में किसी का भला उसकी प्रकृति के विरुद्ध है, तब उसकी लेखनी मुखर हो उठी। हाँ, यह स्थिति कवि दिनकर की ‘हारे को हरिनाम’ वाली नहीं थी, प्रत्युत मोह-भंग से दुःखद के वे उद्गार थे, जो केवल कवि का अन्तस् ही जानता था। इसीलिए उसने जीवन यात्रा में आने वाले समस्त पड़ावों का पुनर्मूल्यांकन करते हुए अपनी परास्त किन्तु तीखे तेवरों वाली मनोवृत्ति को ‘केवल मैं हूँ’ के माध्यम से काव्य में प्रस्तुत किया। इस काव्य का प्रत्येक छन्द कवि के गम्भीर अनुभवों, उदार प्रदायों और बदले में संकीर्ण प्राप्तियों को लक्ष्य कर रहा है। लोक-जीवन में कल्याण बाँटने वाला लोक-छल का भागी बनता है, तो अपनी कमज़ोरी सरलता, भोलेपन और सहज मनोद्गारों को ही उसका कारण मान बैठता है ‘केवल मैं हूँ’ कहकर अपने को ही व्यंग्य और उपहास का पात्र करार देता है; परिणामतः जीवन और सम्पर्क में आने वाले अपनों के प्रति सहज ही गिले-शिकवे उभर आए हैं। समाज के सुचारु चलन के अभावों, अनैतिक आचरण और आदर्शों की लालसा ने कवि के भीतर प्रायः खीझ भर दी है।

प्रस्तुत काव्य उसी खीझ की शाब्दिक अभिव्यक्ति है, जिसमें काव्य-कौशल, कथ्य-विशिष्टता और सरलतम शैली के रूप में कवि की आद्यंत काव्य-कला की मुंँह बोलती तस्वीर भी मौजूद है । दुर्भाग्यवश आज कवि स्वयं हमारे बीच मौजूद नहीं; अपनी आस्था, प्रभु-प्रेम और गुरु-भक्ति के बल पर उस परम शक्ति का सायुज्य पहलू बन चुका है, तो भी उसके ‘केवल मैं हूँ’ तुकांत वाले जीवन की सांझ में लिखे ये पद कवि के भीतर जगे ज्वार के परिचायक हैं। मोह -भंग की मानसिकता प्रत्येक पद में झलकती है, और यही कवि की मृत्यूपरांत प्रकाश में आने वाले इस काव्य की खूबसूरती है।

कवि ने जीवन में कभी हार नहीं मानी थी; उतार-चढ़ाव तो जीवन-यात्रा के पड़ाव हैं। किन्तु जब शरीर ढलता है, चाह कर भी मनुष्य कुछ कर सकने में निःशक्त महसूस करने लगता है, तब उसकी अभिव्यक्ति की तीखी धार भी थोड़ी कुंद होते देखी जा सकती है, पराजय की-सी स्थिति बरबस शाब्दिक रूप लेती है –

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