तेरा दर्पण मेरी आँखें

डॉ भगवानदास ‘निर्मोही’ की 36 कविताओं/गीतों तथा यह संग्रह सन् 1972 में प्रकाशित हुआ। संग्रह की भूमिका ‘बिम्ब और प्रतिबिम्ब’ में कवि शीर्षक की सार्थकता की व्याख्या करते हुए कहते हैं – ‘‘—-रूपहले जगत् से बहुत दूर……….. मैं भटक ही तो रहा था—– किसी ने थमा दिया मेरे कम्पित करों में अलौकिक सपनों का अभिनव दर्पण, ………मुझे उस दर्पण में अपनी सूरत के साथ अक्सर उस की सूरत भी दिखाई देती रही है—– उसी से मुझे अपना और अपनी मंजिल का पता मिलता है—— ।” ‘ तेरा दर्पण मेरी आँखें’ की विशिष्टता यह है कि इन सें लौकिक-अलौकिक, प्रेमिका और परमात्मा, प्रेम और भक्ति सभी कुछ घुल मिल से गए हैं। हर बिम्ब में एक विशिष्ट अलौकिकता की आभा छाई हुई है। भावाभिव्यक्ति, शिल्प ,शैली, भाषा सब में पिछली कृत्तियों से उत्तरोत्तर प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। उक्त संग्रह में कुछ गीत कवि की चिर संगिनी प्रेम व्यथा के चित्र है, परन्तु उस से ऊपर उठकर कवि जब संसार में चारों ओर देखता है तो पाता है कि यहाँ सब मुखौटे लगाए है बाहर से कुछ और तथा भीतर से कुछ और हैं और थोड़ी सी शक्ति पाते ही मानव स्वयं को भगवान मानने लगता है।
कवि जगत् और मानव के कल्याण कुछ करना भी चाहता है। कवि ये भी समझता है कि मनुष्य का ‘जीवन तो लघु सा तिनका’ ही है जिसे सही दिशा दिखाना अति आवश्यक है। मानव मन हमेशा सांसारिक मोह और ईश्वर भक्ति की दुविधा में डोलता रहता है। दोनों की तुलना बहुत सुन्दर और प्रभावशाली ढंग से कवि ने ‘दो पति’ नामक कविता में की है।
हाथ में थामे दर्पण में कवि अन्य भी अनेक बिम्ब देखता है जिसमें सहज ग्रामीण सौन्दर्य बिखेरती ‘ग्राम बाला’ भी है , खग-खगी के प्रेम का ‘बन्धन’ भी है और प्रिय के प्रति गहन प्रेम की अभिव्यक्ति भी है ,नवनिर्मित बांगला देश का अभिनन्दन भी है और वीर रस की गर्जना से भरा ‘आह्वान’ भी है और संसार से पीड़ित कवि द्वारा ‘राम’ से शरणागति की प्रार्थना और आत्म समर्पण भी है । ‘तेरा दर्पण मेरी आँखें’ में निर्मोही जी ने 7 मुक्तक भी संकलित किए हैं । 

Description

रूपहले जग से बहुत दूर, जीवन के वीराने में खोया-खोया, अपने को भी भूला, मैं भटक ही तो रहा था। संतप्त जीवन मरू में ज्वालाओं और धूलभरी आंँधियों के सिवाय कुछ भी नहीं था। विश्व- भीड़ से हटकर, बेसुध सा, न जाने, मैं क्या गुनगुना रहा था ? किस को पुकार रहा था ? क्या चाह रहा था ? मुझे कुछ भी याद नहीं। किसी ने अनजाने ही उस एकान्त में आकर अपनी स्नेह-सुखद छू-सिहरन से समग्र संताप हर लिया; और साथ ही थमा दिया मेरे कम्पित करों में अलौकिक सपनों का अभिनव दर्पण, जो उससा तथा उसकी सृष्टि-सा सुभग एवं सुन्दर था। मेरी अस्थिर आंँखों ने उसमें अपनेपन को प्रतिबिम्बित लख अपने अस्तित्व का आभास बटोरा । गुनगुनाहटें गीत बन गई। अलकावली-सी उलझी जिन्दगी स्वयं सँवर गई ।

मुझे उस दर्पण में अपनी सूरत के साथ अक्सर उसकी सूरत भी दिखाई देती रही है। बिम्ब‌ में भी प्रतिबिम्ब उभरते रहे हैं। मैं मदमस्त हो निरखता रहा हूं। कभी बिहँसता, कभी बिखलता रहा हूं। मेरी आंखों ने उस दर्पण में विभिन्न बिम्ब निहारे हैं। मैं आज भी जीवन के जमघट से ऊब, जब भी उस दर्पण में लखता हूं, परछाइयों में खो सा जाता हूँ । कमाल यह है कि उसी से मुझे अपना और अपनी मंजिल का पता मिलता है देखें यह आँखमिचौनी कब तक चलती है, क्योंकि न तो दर्पण ही शाश्वत है और न ही आँखें अमर हैं। खैर इसकी चिन्ता मुझे क्यों ? न दर्पण आँखों के बिना रह सकेगा, न आँखें दर्पण के बिना । वस्तुतः दोनों का एकाकार एवं आत्म-सात् हो जाना ही जीवन को पराकाष्ठा एवं प्राप्ति है । अस्तु, कुछ एक विभिन्न आकर्षक आकार, ‘उसकी’, उससी हो, अस्फुट स्वीकृत से यहाँ आँकने की धृष्टता मैंने की है । स्यात् आपको भी ये बिम्ब एवं प्रतिबिम्ब भा जाएँ और मैं क्षम्य हो जाऊं । 

भगवान दास ‘निर्मोही’

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