Description
रूपहले जग से बहुत दूर, जीवन के वीराने में खोया-खोया, अपने को भी भूला, मैं भटक ही तो रहा था। संतप्त जीवन मरू में ज्वालाओं और धूलभरी आंँधियों के सिवाय कुछ भी नहीं था। विश्व- भीड़ से हटकर, बेसुध सा, न जाने, मैं क्या गुनगुना रहा था ? किस को पुकार रहा था ? क्या चाह रहा था ? मुझे कुछ भी याद नहीं। किसी ने अनजाने ही उस एकान्त में आकर अपनी स्नेह-सुखद छू-सिहरन से समग्र संताप हर लिया; और साथ ही थमा दिया मेरे कम्पित करों में अलौकिक सपनों का अभिनव दर्पण, जो उससा तथा उसकी सृष्टि-सा सुभग एवं सुन्दर था। मेरी अस्थिर आंँखों ने उसमें अपनेपन को प्रतिबिम्बित लख अपने अस्तित्व का आभास बटोरा । गुनगुनाहटें गीत बन गई। अलकावली-सी उलझी जिन्दगी स्वयं सँवर गई ।
मुझे उस दर्पण में अपनी सूरत के साथ अक्सर उसकी सूरत भी दिखाई देती रही है। बिम्ब में भी प्रतिबिम्ब उभरते रहे हैं। मैं मदमस्त हो निरखता रहा हूं। कभी बिहँसता, कभी बिखलता रहा हूं। मेरी आंखों ने उस दर्पण में विभिन्न बिम्ब निहारे हैं। मैं आज भी जीवन के जमघट से ऊब, जब भी उस दर्पण में लखता हूं, परछाइयों में खो सा जाता हूँ । कमाल यह है कि उसी से मुझे अपना और अपनी मंजिल का पता मिलता है देखें यह आँखमिचौनी कब तक चलती है, क्योंकि न तो दर्पण ही शाश्वत है और न ही आँखें अमर हैं। खैर इसकी चिन्ता मुझे क्यों ? न दर्पण आँखों के बिना रह सकेगा, न आँखें दर्पण के बिना । वस्तुतः दोनों का एकाकार एवं आत्म-सात् हो जाना ही जीवन को पराकाष्ठा एवं प्राप्ति है । अस्तु, कुछ एक विभिन्न आकर्षक आकार, ‘उसकी’, उससी हो, अस्फुट स्वीकृत से यहाँ आँकने की धृष्टता मैंने की है । स्यात् आपको भी ये बिम्ब एवं प्रतिबिम्ब भा जाएँ और मैं क्षम्य हो जाऊं ।
भगवान दास ‘निर्मोही’
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