रोती मुस्कानें

डॉ भगवानदास ‘निर्मोही’ की प्रथम रचना है जो मई 1961 में प्रकाशित हुई। कथा का एक अत्यन्त क्षीण सूत्र लेकर कवि ने पीड़ामय विरहानुभूतियों को और अपने अभावमय जीवन की व्यथा को विवृति दी है। काव्य की ‘आसक्ति’ नामक भूमिका में कवि इस कथासूत्र की ओर संकेत करता है -‘—- मैं अभिनव सपन संसार में खो किसी अनजाने तट की ओर बह चला, जहाँ कोई मधुर मुस्कानें लिए मुझे बुला रहा था पर जब किनारे पर पहुंचा तो सहसा प्रतीक्षक मुस्कानें कहीं खो गई। मैंने बहुत पुकारा,पर मन का मीत न मिला। ………पर ओ कल्पने ……. ! मेरे गीतों में, मेरे स्वर-स्वर में आज भी तुम्हीं हो—-।’
रोती मुस्कानें एक लंबे स्मृति गीत की तरह लिखा गया है जिसमें कवि उस पुरानी मिलन और विरह की कहानी को याद करते हुए अपने पीड़ा मय चीत्कार को शब्दाकार देता है। कवि स्मरण करता है कि वह जब अपने एकाकी पर उन्मुक्त जीवन में मस्त था। तभी कोई स्वयं को समर्पित कर कवि के जीवन में आया -भोला कवि उस की बातों में आ गया। जीवन मधुमास बन गया ,पर शीघ्र ही वह सुन्दरी कवि के अभावमय जीवन से ऊब गई और वैभव की दुनिया में लौट गयी। कवि का सपनों का महल ढह गया, विरह की पीड़ा प्रचण्ड वेग से बह निकली। कभी वह दुःख में बिलखता है-कभी वही दुःख उसे प्रिय लगने लगता है -कभी उस के लौटने का सपना देखता है – पर शीघ्र ही कवि को अपने दुर्भाग्य पर विश्वास होने लगा -फिर भी स्मृतियां पीछा नहीं छोड़ती -कवि की व्यथा कथा तो अनन्त है। पर उसे संसार को सुनाते रहना उसे अभिप्रेत नहीं है अतः अपनी पीड़ा समेटते हुए वह अन्त में कहता है –
‘‘रहने दो ऊब रहा जग,
लम्बी उर – कथा बहुत है
कह लेंगे मिल पाए जो,
कहने को व्यथा बहुत है।।’’
‘रोती मुस्कानें पढ़ें तो जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ की याद बरबस आ जाती है और तब ‘आँसू’ हिन्दी का एकमात्र पुरुष विरह काव्य प्रतीत नहीं होता, ‘रोती मुस्कानें’ स्पष्ट रूप से उसी शृंखला की दूसरी कड़ी लगती है। इस का विरोधाभासपूर्ण शीर्षक ही रचना की विलक्षणता को सामने ले आता है ।

‘भगवानदास ‘निर्मोही’

 

Description

“आज कविता का युग नहीं, मित्रों के कथन की अवहेलना कर मैं लिखता ही रहा हूँ। बात उन की सत्य है। क्योंकि आज लगभग पांच छ: वर्ष के पश्चात ये मुक्तक छप सके हैं, और वे भी मेरे अपने खर्च से। पर क्या करूँ मैं भी तो मजबूर हूँ,

कविता से कुछ ऐसा अपनाव हो गया है, छोड़ नहीं सकता। फलस्वरूप पर्याप्त पन्ने भरे पड़े हैं। देखें ! वे कब पहुँचते हैं, आपके सम्मुख । वर्षो से कवि समय -२ पद्य प्रसूनों का चयन करता रहा है। अब इन में से कुछ के मधुपान का अवसर उपलब्ध हुआ तो जी में आया कि क्यों न इनका एक सुन्दर सा कलाप गुम्फित होकर साहित्य को मण्डित करे । इस सम्बन्ध में कवि की उपेक्षा अच्छी नहीं लगी। उन्हें कृपण वृत्ति छोड़ने की सलाह दी। परिणामतः यह सरस मुक्तकों का संग्रह प्रकाशित हुआ।

यौवन के प्रथम उन्मेष में भावनाओं का प्यार हृदय तट को आप्लावित करने लगता है, सपनों के मेघ उमड़-घुमड़ कर आते हैं, किसी से प्रेम करने, अपना संसार उसमें घुल मिल जाने की प्रबल चाह उत्पन्न होती है, समस्त संसार रंगीन एवं उल्लासमय दिखने लगता है, पैर भूमि पर नहीं टिकते तथा एक अजब सी मादकता छाने लगती है। परन्तु संसार निष्ठुर है, वह अपनी चाल चलता है, यहां फूल के साथ कांटे हैं। आघात लगता है सपने बिखर जाते हैं,

भावनायें घायल हो उठती है और विह्वल पीड़ा पैदा होकर कभी -२ आँसुओं के रूप में बाहर भी विवशत: प्रकट होने लगती है। सुधियां इस कसक को तीव्रतर बनाती रहती हैं। कवि इस मनः स्थिति में से निकला है। प्रकट में मुस्काता सा नज़र आता है परन्तु हृदय को कौन जाने ? परन्तु लगता है कि यह पीड़ा वैयक्तिक न रहकर जग पीड़ा को आत्मसात् करती हुई विराट करुणा का रूप धारण करेगी, बुद्ध की हृत्पीड़ा ने भी करुण-धारा बनकर एक बार समस्त जगती को आप्लावित किया था। कवि के हृदय की यह पीड़ा विराट करुणा में परिवर्तित हो, घनीभूत कालुष्य को धोकर जग को निर्मल बनाने में सहायक बने; ऐसी पूर्ण आशा एवं अभ्यर्थना है।

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