Description
“आज कविता का युग नहीं, मित्रों के कथन की अवहेलना कर मैं लिखता ही रहा हूँ। बात उन की सत्य है। क्योंकि आज लगभग पांच छ: वर्ष के पश्चात ये मुक्तक छप सके हैं, और वे भी मेरे अपने खर्च से। पर क्या करूँ मैं भी तो मजबूर हूँ,
कविता से कुछ ऐसा अपनाव हो गया है, छोड़ नहीं सकता। फलस्वरूप पर्याप्त पन्ने भरे पड़े हैं। देखें ! वे कब पहुँचते हैं, आपके सम्मुख । वर्षो से कवि समय -२ पद्य प्रसूनों का चयन करता रहा है। अब इन में से कुछ के मधुपान का अवसर उपलब्ध हुआ तो जी में आया कि क्यों न इनका एक सुन्दर सा कलाप गुम्फित होकर साहित्य को मण्डित करे । इस सम्बन्ध में कवि की उपेक्षा अच्छी नहीं लगी। उन्हें कृपण वृत्ति छोड़ने की सलाह दी। परिणामतः यह सरस मुक्तकों का संग्रह प्रकाशित हुआ।
यौवन के प्रथम उन्मेष में भावनाओं का प्यार हृदय तट को आप्लावित करने लगता है, सपनों के मेघ उमड़-घुमड़ कर आते हैं, किसी से प्रेम करने, अपना संसार उसमें घुल मिल जाने की प्रबल चाह उत्पन्न होती है, समस्त संसार रंगीन एवं उल्लासमय दिखने लगता है, पैर भूमि पर नहीं टिकते तथा एक अजब सी मादकता छाने लगती है। परन्तु संसार निष्ठुर है, वह अपनी चाल चलता है, यहां फूल के साथ कांटे हैं। आघात लगता है सपने बिखर जाते हैं,
भावनायें घायल हो उठती है और विह्वल पीड़ा पैदा होकर कभी -२ आँसुओं के रूप में बाहर भी विवशत: प्रकट होने लगती है। सुधियां इस कसक को तीव्रतर बनाती रहती हैं। कवि इस मनः स्थिति में से निकला है। प्रकट में मुस्काता सा नज़र आता है परन्तु हृदय को कौन जाने ? परन्तु लगता है कि यह पीड़ा वैयक्तिक न रहकर जग पीड़ा को आत्मसात् करती हुई विराट करुणा का रूप धारण करेगी, बुद्ध की हृत्पीड़ा ने भी करुण-धारा बनकर एक बार समस्त जगती को आप्लावित किया था। कवि के हृदय की यह पीड़ा विराट करुणा में परिवर्तित हो, घनीभूत कालुष्य को धोकर जग को निर्मल बनाने में सहायक बने; ऐसी पूर्ण आशा एवं अभ्यर्थना है।
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