सपने और धड़कन

कवि भगवान दास ‘निर्मोही’ की रचना ‘सपने और धड़कन’ एक गीत संग्रह है जिसमें 51 हृदयस्पर्शी गीत संकलित हैं। कवि संग्रह की भूमिका ‘मानसी’ में लिखता है-
‘‘……… सपने कल्पनाकाश हैं तो धड़कन ठोस धरातल। समय और परिस्थिति के अनुसार सपने भी बदलते रहते हैं, धड़कनें भी परिवर्तित होती रहती हैं। मानव कभी आशा के विमलाकाश में उड़ता है, तो कभी विरक्ति के विजय-वन में विहरता दीख पड़ता है ……..”। इस संग्रह में कवि की कविता के नए रंग भी देखने को मिलते है। कवि निजी पीड़ा, निजी सुख-दुख से ऊपर उठ मानव, मानवता और जगत् की चिन्ता करता भी दिखाई देता है। इसी संग्रह में एक लम्बी कविता ‘महात्मा बुद्ध’ भी है, जिन के शांति और अंहिसा के उपदेश की आज समस्त जगत् को आवश्यकता है।
अन्य भी अनेक विविध भावों भरे गीत इस संकलन में संकलित हैं जैसे ‘वैसाखी’ तथा ‘दीवाली के दीप जलाओ’- जिन में कवि ने त्यौहारों की उमंग में जीवन की निराशा धोने का प्रयास किया है, ‘मजदूरिन’ में सब ओर से शोषित प्रताड़ित मजदूर स्त्री का मार्मिक चित्र खींचा है, ‘कवि से किसान बन’ में यथार्थ ज्ञान दे कर मस्त कवि को श्रमिक के साथ श्रम करने की प्रेरणा दी है, ‘मानव अपनी लघुता जानो,’ ‘कोई भी इन्सान न पूरा’, ‘जज़बात और जिन्दगी’, ‘साथी दुख से सुख डरता है’ में कवि का जीवन दर्शन तथा अध्यात्म उभर कर आया है और कुछ गीतों में इन सब से बिल्कुल अलग वीर रस का चित्र चित्रित है जैसे – ‘बरकी के मैदान में’, ‘हिमालय पर’।
‘सपने और धड़कन’ में कवि निर्मोही ने अपने छः मुक्तक भी संकलित कर नई शैली का परिचय दिया है -उक्त संग्रह में संकलित रचनाएं कवि की काव्ययात्रा के नए सोपानों का प्रमाण देती हैं। कहीं अतुकान्त और कहीं उर्दू के शब्दों से युक्त गज़ल शैली को अपना कर कवि ने शिल्प की दृष्टि से भी नए प्रयोग किए हैं।

Description

मानव अनादि काल से सपने देखता आया है जिनमें से कुछ एक पूरे होते हैं, वहाँ बहुत से परे भी रह जाते है। जिस दिन मानव सपनों का संसार सजाना छोड़ देगा, उस दिन उसका अन्तर पीड़ा और टीस से अभिभूत होकर कुण्ठित हो जायेगा अतएव सपने मानव के लिए अनिवार्य है यद्यपि उनमें से अधिकांश धड़कन नहीं बन पाते। वस्तुतः ये सपने मानव के लिए जीने का सहारा हैं, जिनमें उसे अधूरी इच्छाओं की पूर्ति से विश्रांति तथा सुखानुभूति प्राप्त होती है।

सपने कल्पनाकाश हैं तो घड़कन एक ठोस धरातल सपने यदि चंचलता एवं चारुता से परिपूर्ण लहरें है तो घड़कनें चिर-स्थिर कूलाँत । जैसे हर शहर को किनारा नहीं मिलता, वैसे ही हर सुनहला सपना घड़कन नहीं बन पाता। इसे भाग्य की विडम्बना, नियति का नियम, व्यक्ति की परिमितता, जगत की क्रूरता, कुछ भी कहिए, पर यह सब कुछ होता है, होता रहा है, होता रहेगा।

सपनों का संसार भी तो सदा एक-सा नही रहता । भावों-अभावों के अनुसार स्वप्निल जग बनता-संवरता रहता है, जो जाने अनजाने घायल उर को बहलाकर तनिक दिलजोई का साधन जुटाता रहता है। इन विभिन्न प्रकार के सपनों की परिणति भी भिन्न प्रकार से होती रहती है। समय और परिस्थितियों के साथ-साथ सपने भी बदलते रहते हैं, धड़कनें भी परिवर्तित होती हैं।मानव कभी आशा के विमाकाश में उड़ता है, तो कभी विरक्ति के विजन-धन में विहरता दीख पड़ता है । वह कभी आशा के रंगीन हडौले में झूलता है तो कभी निराशा के गहन गर्त में धँसता चला जाता है।

कभी वह दुनिया से दूर जगत के झमेलों को त्याग मृत्यु का आंँचल थामना चाहता है और कभी कभी वह जीवन- नीड़ के अरमान गुणों को संजोने तथा सम्भालने के लिए विश्व भर से जूझना चाहता है। कभी वह प्रणय के कोमल आवेष्टन से बाहर आकर शत्रु को ललकारता भी है। कभी-कभी वह जग के व्यंग्य बाणों से बिंधा घायल, तड़पता लड़खड़ाता भी दीख पड़ता है। जहाँ उसे मिलन में मुस्कराहट मिलती है, वहाँ विरह में बहाने के लिए विकल आँसू भी । यौवन की मधु-मदिरा के खुमार में झूमते-ऊँघते मानव को कभी-कभी धरती की विह्वलता तथा जन-समाज की व्याकुलता का ध्यान भी आ जाता है, तो वह गीतों का संसार छोड़ हल थामने की बात कहने लगता है।

अस्तुः मानव होने के नाते मैं भी यदि इस प्रकार के सपनों का संसार बसाता तथा धड़कनों के साज सजाता रहा, तो यह सहज एवं सम्भाव्य ही है। इसके फल स्वरूप घड़कनों के तार झनझनाते रहे; उन से सुख-दुख के गीत उमगते-उपजते रहे, जिन्हें मैं आज सम्मिलित रूप में ‘सपने और धड़कन’ की संज्ञा देकर अपना मन बहलाने के लिए कहिए या सहृदयों को काव्य-स्वादन करवाने के लिए, पाठकों के सम्मुख ले आया हूँ। मुझे विश्वास है कि उन सभी को, जिन्होंने कभी सपनों के साज पर धड़कनों के गीत गुनगुनाए हैं, मेरे गीत भाएँगे।

‘निर्मोही’

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